Saturday, June 13, 2020

समकालीन दोहा, नया दोहा या आधुनिक दोहा की विशेषताएं

दोहा

दोहा एक अर्द्धसम मात्रिक छंद है|  यह भारत में प्राचीन काल से ही प्रचलित और लोकप्रिय रहा है| यह संस्कृत से भाषाओँ के विकास के साथ-साथ हिंदी में आया है| संस्कृत में इसे ‘दोग्धक’ कहा जाता था| जिसका अर्थ है- जो श्रोता या पाठक के मन का दोहन करे| इसे दोहक, दूहा, दोहरा, दोहड़ा, दोहयं, दोहउ, दुवह और दोहअ भी कहा जाता रहा है| लेकिन अब लोकप्रिय नाम दोहा है|
दोहा 24-24 मात्राओं वाली दो पंक्तियों और चार चरणों में 13-11, 13-11 के क्रम में कुल 48 मात्राओं से लिखा जाता है| प्रथम और तृतीय चरण का समापन लघु गुरु से और दूसरे तथा चौथे चरण का समापन गुरु लघु से होना अनिवार्य है| 

मानक दोहा-

लोकप्रिय दोहाकार रघुविन्द्र यादव के अनुसार "दो पंक्तियों और चार चरणों में 13-11, 13-11 के क्रम में कुल 48 मात्राओं से लिखा जाने वाला छंद, दोहा कहलाता है| इससे अधिक या कम मात्रा वाली रचना मानक दोहा की श्रेणी में नहीं आती| मानक दोहे के शिल्प की आवश्यक शर्त है कि उसके प्रथम और तृतीय चरण का समापन लघु गुरु से और दूसरे तथा चौथे चरण का समापन गुरु लघु से हो| किसी भी चरण का आरम्भ पचकल और जगण शब्द से न हो| ऐसा दोहे की लय बनाये रखने के लिए अनिवार्य है| यदि कोई रचना ये शर्तें पूरी करती है तभी उसे ‘मानक दोहा’ माना जाता है|" मानक का अर्थ है वह सिद्धांत जो सर्व मान्य हो| 

परम्परागत दोहा-

जो दोहा भक्तिकाल, रीतिकाल या उससे पहले अथवा बाद में रचा गया, उसी दोहे को परम्परागत दोहा कहते हैं| जिसमें भक्ति है, उपदेश हैं, नैतिक शिक्षा है या श्रृंगार रस है| 

समकालीन दोहा/ नया दोहा/ आधुनिक दोहा-

जो दोहा आज लिखा जा रहा है, जिसका कथ्य समकालीन व मौजूदा युगबोध पर आधारित है और जिसकी भाषा भी समकालीन है| उसे ही नया दोहा, आधुनिक दोहा या समकालीन दोहा कहा जाता है| समकालीन दोहा में न तो भक्ति है, न नैतिक शिक्षा या उपदेश हैं और न ही श्रृंगार रस है| 

दोहा दरबारी बना, दोहा बना फ़कीर|
नए दौर में कह रहा, दोहा जीवन पीर||- रघुविन्द्र यादव/वक़्त करेगा फैसला 

विभिन्न विद्वानों ने समकालीन दोहा को विभिन्न प्रकार से परिभाषित किया है| आधुनिक दोहा के पुरस्कर्ता प्रोफेसर देवेन्द्र शर्मा ‘इंद्र’ दोहे की विशेषता कुछ यूँ बताते हैं- “दोहा छंद की दृष्टि से एकदम चुस्त-दुरुस्त और निर्दोष हो| कथ्य सपाट बयानी से मुक्त हो| भाषा चित्रमयी और संगीतात्मक हो बिम्ब और प्रतीकों का प्रयोग अधिक से अधिक मात्रा में हो| दोहे का कथ्य समकालीन और आधुनिक बोध से सम्पन्न हो| उपदेशात्मक नीरसता और नारेबाजी की फूहड़ता से मुक्त हो|”

डॉ. अनंतराम मिश्र ‘अनंत’ दोहे की आत्मकथा में लिखते हैं- “भाषा मेरा शरीर, लय मेरे प्राण, और रस मेरी आत्मा है| कवित्व मेरा मुख, कल्पना मेरी आँख, व्याकरण मेरी नाक, भावुकता मेरा हृदय तथा चिंतन मेरा मस्तिष्क है| प्रथम और तृतीय चरण मेरी भुजाएँ एवं द्वितीय और चतुर्थ चरण मेरे चरण हैं|”

श्री जय चक्रवर्ती समकालीन दोहे को परिभाषित करते हुए कहते हैं- “समकालीन दोहे का वैशिष्टय यह है कि इसमें हमारे समय की परिस्थितियों, जीवन संघर्षों, विसंगतियों, दुखों, अभावों और उनसे उपजी आम आदमी की पीड़ा, आक्रोश, क्षोभ के सशक्त स्वर की उपस्थिति प्रदर्शित होने के साथ-साथ मुक्ति के मार्ग की संभावनाएं भी दिखाई दें|”

श्री हरेराम समीप परम्परागत और आधुनिक दोहे का भेद स्पष्ट करते हुए लिखते हैं- “परम्परागत दोहों से आधुनिक दोहा का सौन्दर्यबोध स्वाभाविक रूप से बदला है| अध्यात्म, भक्ति और नीतिपरक दोहों के स्थान पर अब वह उस आम-जन का चित्रण करता है, जो उपेक्षित है, पीड़ित है, शोषित है और संघर्षरत है| इस समूह के दोहे अपने नए अंदाज़ में तीव्र और आक्रामक तेवर लिए हुए हैं| अत: जो भिन्नता है वह समय सापेक्ष है| इसमें आस्वाद का अन्तर प्रमुखता से उभरा है| इन दोहों में आज का युगसत्य और युगबोध पूरी तरह प्रतिबिंबित होता है|”

डॉ.राधेश्याम शुक्ल के अनुसार, “आज के दोहे पुरानी पीढ़ी से कई संदर्भों, अर्थों आदि में विशिष्ट हैं| इनमे भक्तिकालीन उपदेश, पारम्परिक रूढ़ियाँ और नैतिक शिक्षाएँ नहीं हैं, न ही रीतिकाल की तरह श्रृंगार| अभिधा से तो ये बहुत परहेज करते हैं| ये दोहे तो अपने समय की तकरीर हैं| युगीन अमानुषी भावनाओं, व्यवहारों और परिस्थितियों के प्रति इनमें जुझारू आक्रोश है, प्रतिकार है, प्रतिवाद है|”

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