Tuesday, May 20, 2025

समकालीन बहुरंगी दोहों का संकलन है : नावक के तीर

“नावक के तीर” हिन्दुस्तानी भाषा अकादमी, दिल्ली द्वारा प्रकाशित 51 दोहाकारों का साझा दोहा संकलन है| जिसमें प्रत्येक दोहाकार के 15-15 दोहे सचित्र संक्षिप्त परिचय सहित प्रकाशित किये गए हैं| संकलन में जहाँ वरिष्ठ दोहाकार डॉ रामनिवास ‘मानव’, घमंडीलाल अग्रवाल, मनोज ‘अबोध’, रघुविन्द्र यादव, योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’, राजपाल गुलिया, त्रिलोक सिंह ठकुरेला, कमलेश व्यास ‘कमल’ आदि शामिल हैं वहीं युवा दोहाकार राहुल शिवाय, गरिमा सक्सेना, सत्यम भारती, संजय तन्हा, अनंत आलोक, अमर पाल, कुलदीप कौर ‘दीप’, धर्मपाल ‘धर्म’ आदि शामिल हैं|

इनके अलावा डॉ मधु प्रधान, सुशीला शील, हरिराम पथिक, संदीप मिश्र ‘सरस’, डॉ तुलिका सेठ, हलीम आईना, अलका शर्मा, ओंकार सिंह ‘विवेक’, सुरेश कुशवाह ‘तन्मय’, विभा राज ‘वैभवी’, संदीप सृजन, सरिता गुप्ता, सूर्य प्रकाश मिश्र, रमा प्रवीर वर्मा, डॉ मनोज कामदेव, कृष्ण सुकुमार, शीतल वाजपेयी, नीलम सिंह, डॉ फहीम अहमद, बृजराज किशोर ‘राहगीर’, वृन्दावन राय ‘सरल’, डॉ लक्ष्मी नारायण पाण्डेय, किरण प्रभा, विनयशील चतुर्वेदी, रामकिशोर सौनकिया किशोर, डॉ मानिक विश्वकर्मा ‘नवरंग’, डॉ गीता पाण्डेय ‘अपराजिता’, व्यग्र पाण्डेय, डॉ नूतन शर्मा ‘नवल’, प्रोमिला भारती, सुरेन्द्र कुमार सैनी, प्रबोध मिश्र ‘हितैषी’. डॉ चंद्रपाल सिंह यादव, अजय अज्ञात और मोहन द्विवेदी शामिल हैं| 

दोहकारों ने जीवन जगत से जुड़े विभिन्न विषयों यथा सामाजिक कुरीतियों, विद्रूपताओं, नैतिक पतन, स्वार्थ लोलुपता, पर्यावरण ह्रास, संवेदनहीनता, बुजुर्गों की उपेक्षा, किसानों की पीड़ा, राजनैतिक पतन, भ्रष्टाचार, दहेज़, टूटते परिवार, दरकते रिश्ते, माँ, हिंदी, नारी, बेटी, प्रकृति, संस्कृति आदि पर दोहे लिखे हैं| ये दोहे युगबोध के दोहे हैं और अपने समय से सवाल करते हैं|

अधिकाँश दोहकारों ने बिम्बों, प्रतीकों, अलंकारों, मुहावरों का प्रयोग करके अपनी अभिव्यक्ति को प्रभावशाली और दमदार बनाया है| हालांकि कुछ लोग अभी भी उपदेशात्मक और धार्मिक दोहों पर ही अटके हुए हैं| यों तो इस संकलन के 80 प्रतिशत दोहे उद्दृत करने योग्य हैं, लेकिन हर चीज की एक सीमा होती है| इसलिए कुछ समकालीन दोहे बानगी स्वरुप प्रस्तुत हैं-

 उन हाथों को ही मिलें, सदा जलन के घाव|

तेज हवा से दीप का, जो भी करें बचाव|| (अलका शर्मा)

सूख गई संवेदना, मरी मनों की टीस|

अब कोई रोता नहीं, एक मरे या बीस|| (डॉ रामनिवास मानव)

कहाँ सिया को ले गई, स्वर्ण हिरण की चाह|

जान रहे फिर भी नहीं, हमने बदली राह|| (राहुल शिवाय)

 आम नीम सौगान वट, नागफनी कचनार|

मिट्टी रचती ही रही, अलग-अलग किरदार|| (गरिमा सक्सेना)

 गली-गली में हो रहा, नैतिकता का खून|

पट्टी काली बाँधकर, बैठा है कानून|| (रमा प्रवीर वर्मा)

 प्रेम शब्द की वेदना, घायल मन की पीर|

या तो मीरा जानती, या फिर दास कबीर|| (मनोज अबोध)

ये रोटी को खोजता, वह सोने की खान|

अपने प्यारे देश में, दो-दो हिन्दुस्तान|| (घमंडीलाल अग्रवाल)

हेरा-फेरी ने किया, यह कैसा विध्वंस|

बगुले घुसे कतार में, मौन खड़े हैं हंस|| (प्रोमिला भारती)

 हुई अश्व-सी जिंदगी, दौड़ रहे अविराम|

चबा-चबा कर थक गए, कटती नहीं लगाम|| (राजपाल गुलिया)

जिस दिन से मेरी हुई, गर्म जरा-सी जेब|

तब से मेरे छिप गए, सारे झूठ फरेब|| (धर्मपाल धर्म)

 माली भी हैरान है, देख समय का फेर|

बरगद को बौना कहें, गमले उगे, कनेर|| (रघुविन्द्र यादव)

संकलन के अधिकांश दोहे कथ्य और शिल्प दोनों दृष्टि से कसे हुए और परिपक्व हैं| लेकिन कुछ दोहों में छंद दोष रह गए हैं| पृष्ठ 22 पर “पल-पल गढ़ा समय तुझे” में मात्राएँ बढ़ रही हैं| पृष्ठ 37 पर “फ़ैल रहा है यह रोग” में भी मात्राएँ बढ़ रही हैं| पृष्ठ 39 पर “फैलाये परकास” में जबरन तुक मिलाने का प्रयास किया गया है| इसी पृष्ठ पर “बिन पंखों से नाप ले, धरती अरु अस्मान” भी अशुद्ध है| पृष्ठ 42 पर “न्याय धर्म की जीत हुई” में मात्राएँ बढ़ी हुई हैं| पृष्ठ 45 पर “सावन भादों चेत” में भी ज़बरन तुक मिलाने का प्रयास किया गया है| पृष्ठ 46 “दुख के दरवाजे घुसे, आशाओं की बेल| लिपटे हरित बबूल से, दूध-छाँछ का खेल||” में कवि क्या कहना चाहता है स्पष्ट नहीं है| पृष्ठ 50 “इतिहास के पृष्ठ यहाँ” में चरण की शुरुआत पचकल शब्द से हो रही है, जिसके कारण लय बाधित है| पृष्ठ 52 पर “मर गया वह गरीब” में प्रारम्भिक द्विकल के बाद त्रिकल आने से लय बाधित है| इसी पृष्ठ पर “रंग-रूप से चले नहीं” में मात्राएँ बढ़ रही हैं| पृष्ठ 53 पर “पंछी खेतिहर ढोर सब” में मात्राएँ बढ़ रही हैं| पृष्ठ 54 पर “पीठ से सटा पेट” तथा “चमक बढ़ गई गाँव की” में प्रारंभिक त्रिकल के बाद द्विकल आने से लय बाधित है| पृष्ठ 79 पर “चेहरों की रेखाओं में” इस चरण में मात्राएँ बढ़ गई हैं और 11वीं मात्रा भी लघु नहीं है| पृष्ठ 84 पर “उसी राम की रक्षा को” में भी मात्राएँ बढ़ी हुई हैं और 11वीं मात्रा लघु नहीं है| पृष्ठ 84 पर “हृदय विवेक विहीन कवि” में लय बाधित है| पृष्ठ 85 पर “अभी उमर वारी मेरी” में मात्राएँ बढ़ी हुई हैं और 11वीं मात्रा भी लघु नहीं है| पृष्ठ 86 पर “बोला यह तो हम मेरा” में मात्राएँ बढ़ी हुई हैं और 11वीं मात्रा भी लघु नहीं है| पृष्ठ 86 पर “हो गये अरुण कपोल” में मात्राएँ बढ़ी हुई हैं, छंद दोष है| पृष्ठ 86 पर “खिली-खिली-सी लिली भी” में 11वीं मात्रा लघु नहीं है, जो अनिवार्य है| पृष्ठ 89 पर “करो सदा गुणगान है, बहती है रसधार” में अर्थ स्पष्ट नहीं है| पृष्ठ 89 पर ही ‘प्रवाह’ का तुकांत शब्द ‘भाव’ लिया गया है, जो अशुद्ध है| पृष्ठ 91 पर “समझ-समझ का फैर” में ज़बरन तुक मिलाने का प्रयास किया है| पृष्ठ 92 पर “गुरु कृपा इस जगत में” में मात्राएँ कम हो गई हैं, छंद दोष है| पृष्ठ 92 पर ही “फाग राग संग बाजे” में 11वीं मात्रा लघु नहीं है, लय बाधित है| पृष्ठ 92 पर ही “वो रात की नींद” मात्राएँ कम हो गई हैं, छंद दोष है| पृष्ठ 97 पर अंतिम दोहे में “छाप” का तुकांत “भाँप” लिया गया है, जो अशुद्ध है| पृष्ठ 97 पर “स्वयं दौड़ती आएगी” में मात्राएँ बढ़ी हुई हैं और 11वीं मात्रा भी लघु नहीं है| पृष्ठ 102 पर “अंत समय रह जाएगा” में मात्राएँ बढ़ी हुई हैं और 11वीं मात्रा भी लघु नहीं है| पृष्ठ 105 पर “सागर में तो आयेंगे” में मात्राएँ बढ़ी हुई हैं और 11वीं मात्रा भी लघु नहीं है| पृष्ठ 106 पर “दूर रहें पर मिले ज्यों” में 11वीं मात्रा लघु नहीं है| पृष्ठ 106 पर “बुनो न सामासिक पदों, के संशय के वर्ग” में लय भंग है|

पुस्तक में प्रूफ की ढेरों अशुद्धियाँ है, जो ऐसे अखरती हैं जैसे स्वादिष्ट खीर में कंकर हों| इनके कारण भी कुछ दोहों में छंद दोष उत्पन्न हुए हैं| जैसे दिखा को देखा, दुख को दुःख, अदबी को आदबी, बढ़ा को बड़ा, जानें को जाने, आहट को आहत, शृंगार को श्रृंगार और श्रींगार, ‘को’ को के, उद्गार को उद्धार, मुझको को मूझको, मुकुलित को मुकूलित लिख दिया गया है| पृष्ठ 66 के एक दोहे से 6 मात्रा का शब्द ‘मातृसदन” ही गायब है, तो पृष्ठ 117 पर नेकी शब्द से ‘ने’ गायब है| बहुत से दोहों में या तो यति गायब है या गलत जगह लगाई हुई है| पहली भूमिका और उसमें उद्दृत किये गए दोहों में भी प्रूफ की अशुद्धियाँ हैं और दूसरी में भी|

संकलन में उपदेशात्मक दोहे भी शामिल किये गए हैं और आय, जाय, पाय, लगाय जैसे शब्दों के उपयोग वाले भी, जिनकी समकालीन दोहे में कोई जगह नहीं है| देशज और विदेशी शब्द यदि दोहे की प्रभावोत्पादकता बढ़ाते हों, तो प्रयोग करने में कोई हर्ज़ नहीं, लेकिन अंग्रेजी के रेपिस्ट शब्द का हिंदी में बहुवचन रेपिस्टों मुझे उचित नहीं लगा|

इस 120 पृष्ठीय पेपरबैक कृति का आवरण, छपाई, प्रस्तुतिकरण और कागज़ सब स्तरीय हैं| मूल्य 250 रुपये भी वाजिब ही कहा जाएगा| कुल मिलाकर यह एक अच्छा और पठनीय दोहा संकलन है जो दोहा साहित्य को समृद्ध करेगा| अकादमी का यह एक सराहनीय प्रयास है, इससे नए दोहकारों को मंच मिला है, वहीं पाठकों को वरिष्ठ दोहकारों के भी दोहे पढ़ने को मिलेंगे|

सम्पादक सुधाकर पाठक जी और टीम को बधाई| आशा है अगला संस्करण त्रुटियों को दूर करके प्रकाशित करवाएंगे| 

रघुविन्द्र यादव 

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2 Responses to "समकालीन बहुरंगी दोहों का संकलन है : नावक के तीर"

  1. पुस्तक पर सटीक, खरी, उचित आलोचना की है आदरणीय👍👌

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  2. वाह जी वाह । लाजवाब समीक्षा, यादव जी ।

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