Saturday, April 12, 2025

दोहों की परम्परा को सुदृढ़ करने वाला संग्रह : नागफनी के फूल

दोहा साहित्य की वह विधा है जिसके द्वारा कवि कम से कम शब्दों में, कम से कम समय में अधिकतम बात कहने में सफल होता है| दोहा पाठक या श्रोता की चेतना को एकदम से झकझोरता है| दोहे के अर्थ को आम बौद्धिक व्यक्ति आसानी से समझ सकते हैं| रहीम से लेकर आज तक इसकी लोकप्रियता में कहीं कोई कमी नहीं आई है| 

यदि कवि संवेदनशीलता के साथ सूक्ष्म और तटस्थ दृष्टिकोण रखते हुए विविध विषयों का समावेश कर, शब्द-शक्ति का बेहतर उपयोग करता है तो दोहा और अधिक प्रभावी बन जाता है| रघुविन्द्र यादव नयी पीढ़ी के वे दोहाकार हैं जो अपने दोहों के माध्यम से कुव्यवस्था, कुरीतियों, भ्रष्टाचार, स्त्री-विमर्श, पर्यावरण, मानवीय संबंधों की बदलती परिभाषा और आम आदमी के दुःख-दर्द को केंद्र में रखकर सशक्त तरीके से, नूतनता के साथ अपनी बात कहने में सक्षम हैं|

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कुल छह पुस्तकों का लेखन-संपादन कर चुके रघुविन्द्र यादव कि कृति "नागफनी के फूल" दोहा विधा में उनका पहला संग्रह है| जिसमें तुझ में मेरी आस्था, नागफनी के फूल, नेता लूटें देश को, भूखा रहा अवाम, भ्रष्ट व्यवस्था हो गई, दौलत की दीवार, बूँद-बूँद में ज़हर, जनभाषा हिंदी बने, वीरों का सम्मान आदि 25 शीर्षकों के अंतर्गत 424 दोहे शामिल हैं|

रघुविन्द्र यादव सहित और समाज के प्रति समर्पित व्यक्ति हैं| वे सजग्त्ता से अपनी निष्ठा को न्यायप्रियता के साथ जोड़कर लेखनी के माध्यम से अपना कर्तव्य निभाने का वादा करते हैं| वे सामाजिक संरचना में आये परिवर्तन की गंभीर विवेचना करते हैं| वे जानते हैं कि मानवता की भलाई और दीर्घकालीन सुखद जीवन के लिए अच्छे लोगों का होना आवश्यक है| लेकिन कवि वर्तमान परिस्थितियों से आहत है| वह सभी से एक प्रश्न पूछते हैं| वह चाहते हैं कि सभी लोग इस प्रश्न का उत्तर ढूँढ़ें, आत्म्विश्लेष्ण करें और सकारात्मक परिवर्तन के लिए पहल करें-

गड़बड़ मौसम से हुई, या माली से भूल|
आँगन में उगने लगे, नागफनी के फूल||

कवि आम आदमी को ही भारत की असली तस्वीर मानता है| वे शाइनिंग इंडिया के भुलावे से दूर अंतिम व्यक्ति के दुःख-दर्द को महसूस करते हैं| साम्प्रदायिकता और महँगाई से आम आदमी कितना पीड़ित है, यह कुर्सी पर बैठे सफेदपोश नहीं जानते-

भड़की नफरत की कभी, कभी पेट की आग|
दुखिया के दोनों मरे, बेटा और सुहाग||

आज भी हमारा समाज अन्धविश्वास, कुरीतियों, रूढ़ियों और पाखण्ड से ग्रस्त है| इन पर खर्च होने वाला धन अगर समाज विकास पर खर्च हो तो उन्नति का मार्ग प्रशस्त हो सकता है| लेकिन दिखावे का जीवन जीने के आदि हो चुके लोग आज भी उसी पुरानी पतन की राह पर हैं| कवि का कोमल हृदय बुजुर्गों के साथ होने वाले दुर्व्यवहार और तिरस्कार से भी आहत है| विभिन्न उदेश्यों को लक्षित करता उनका एक दोहा देखिये-

दो रोटी के वास्ते, मरता था जो रोज़| 
मरने पर उसके हुआ, देशी घी का भोज||

हरियाणा पूरे देश में खापों के फरमानों की वजह से चर्चा में रहता हा खाप पंचायतें समाज के सौहार्द और मनुष्य की भलाई के लिए कार्य करें तो प्रशंसनीय हैं, लेकिन अगर वे कानून अपने हाथ में लें तो वह संविधान और देश की गरिमा के खिलाफ है| सबके अपने नैतिक मानदंड हो सकते हैं, लेकिन इन्हें जाति या धर्म के नाम पर दूसरों पर थोपना तानाशही है-

गला प्यार का घोंटते, खापों के फ़रमान|
जाति धर्म के नाम पर, कुचल रहे अरमान||

वर्तमान दौर में कुर्सी की चाह इतनी प्रबल है कि हर कोई बहती गंगा में हाथ धोना चाहता है-

कुर्सी खातिर लड़ रहे, सज्जन संत फ़क़ीर|
नैतिकता की राह में, घायल पड़े कबीर||

यहाँ नाम का ही लोकतंत्र है| आजादी के बाद से आज तक सत्ता चुनिन्दा हाथों में ही रही है| कवि वंशवाद की राजनीति का विरोध करता है-

भीड़तंत्र को दे दिया, लोकतंत्र का नाम|
राज खडाऊं कर रही, बदला कहाँ निज़ाम||

न्यायपालिका लोकतंत्र का मजबूत स्तम्भ होती है, लेकिन हमारी न्याय प्रणाली धीमी गति से कार्य करती है| इसलिए लोगों को समय से न्याय नहीं मिल पाता| न्याय में देरी भी अन्याय के समान है-

बूढी अम्मा मर गई, कर-कर नित फ़रियाद|
हुआ केस का फैसला, बीस बरस के बाद||

धार्मिक आस्था का दोहन आज चरम पर है| अनपढ़, ढोंगी बाबा भी दर्शन-शास्त्र की बात करते हैं और गोल-गोल घुमाते हुए सामने वाले को अपनी गिरफ्त में ले लेते हैं| महिलायें उनका आसान शिकार होती हैं-

सास-ससुर लाचार हैं, बहू न पूछे हाल|
डेरे में सेवा करे, बाबा हुआ निहाल||

पर्यावरण संरक्षण कार्यकर्त्ता से कवि बने श्री यादव प्रकृतिवादी हैं| वे पर्यावरण में होने वाले परिवर्तन को देखते-समझते हैं| एक बेहद रोचक नूतन प्रयोग के साथ वे जल की महिमा बताते हुए कहते हैं-

जल से कुछ जल बिन मरे, जल कर मरे हज़ार|
जलते को जल दे बुझा, जल जीवन का सार||

रघुविद्र यादव के दोहों में पैनापन. विविधता, नूतन प्रयोग, आम आदमी के हित में बहने वाली प्रवाहमय शैली, कलात्मकता व आशावाद है| उनके दोहों में कटु जीवन यथार्थ को, नग्न युगबोध को धारदार अभिव्यक्ति मिली है| रघुविन्द्र यादव के दोहे कथ्य और शिल्प दोनों दृष्टि से हमें आश्वस्त करते हैं| 

पुस्तक का आवरण आकर्षक, छपाई सुंदरा और कागज़ स्तरीय है| प्रूफ की कोई अशुद्धि नज़र नहीं आती| बहर्लाक रघुविन्द्र यादव का यह दोहा संग्रह न केवल दोहा के प्रशंसकों को अपितु अन्य विधाओं के चाहने वालों को भी पसंद आएगा, ऐसी आशा है| दोहों की परम्परा को सुदृढ़ करने वाली यह पुस्तक स्वागत योग्य है|

डॉ. सुशील शीलू 
मंडलाना, नारनौल 

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