Tuesday, May 20, 2025

समकालीन बहुरंगी दोहों का संकलन है : नावक के तीर

“नावक के तीर” हिन्दुस्तानी भाषा अकादमी, दिल्ली द्वारा प्रकाशित 51 दोहाकारों का साझा दोहा संकलन है| जिसमें प्रत्येक दोहाकार के 15-15 दोहे सचित्र संक्षिप्त परिचय सहित प्रकाशित किये गए हैं| संकलन में जहाँ वरिष्ठ दोहाकार डॉ रामनिवास ‘मानव’, घमंडीलाल अग्रवाल, मनोज ‘अबोध’, रघुविन्द्र यादव, योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’, राजपाल गुलिया, त्रिलोक सिंह ठकुरेला, कमलेश व्यास ‘कमल’ आदि शामिल हैं वहीं युवा दोहाकार राहुल शिवाय, गरिमा सक्सेना, सत्यम भारती, संजय तन्हा, अनंत आलोक, अमर पाल, कुलदीप कौर ‘दीप’, धर्मपाल ‘धर्म’ आदि शामिल हैं|

इनके अलावा डॉ मधु प्रधान, सुशीला शील, हरिराम पथिक, संदीप मिश्र ‘सरस’, डॉ तुलिका सेठ, हलीम आईना, अलका शर्मा, ओंकार सिंह ‘विवेक’, सुरेश कुशवाह ‘तन्मय’, विभा राज ‘वैभवी’, संदीप सृजन, सरिता गुप्ता, सूर्य प्रकाश मिश्र, रमा प्रवीर वर्मा, डॉ मनोज कामदेव, कृष्ण सुकुमार, शीतल वाजपेयी, नीलम सिंह, डॉ फहीम अहमद, बृजराज किशोर ‘राहगीर’, वृन्दावन राय ‘सरल’, डॉ लक्ष्मी नारायण पाण्डेय, किरण प्रभा, विनयशील चतुर्वेदी, रामकिशोर सौनकिया किशोर, डॉ मानिक विश्वकर्मा ‘नवरंग’, डॉ गीता पाण्डेय ‘अपराजिता’, व्यग्र पाण्डेय, डॉ नूतन शर्मा ‘नवल’, प्रोमिला भारती, सुरेन्द्र कुमार सैनी, प्रबोध मिश्र ‘हितैषी’. डॉ चंद्रपाल सिंह यादव, अजय अज्ञात और मोहन द्विवेदी शामिल हैं| 

दोहकारों ने जीवन जगत से जुड़े विभिन्न विषयों यथा सामाजिक कुरीतियों, विद्रूपताओं, नैतिक पतन, स्वार्थ लोलुपता, पर्यावरण ह्रास, संवेदनहीनता, बुजुर्गों की उपेक्षा, किसानों की पीड़ा, राजनैतिक पतन, भ्रष्टाचार, दहेज़, टूटते परिवार, दरकते रिश्ते, माँ, हिंदी, नारी, बेटी, प्रकृति, संस्कृति आदि पर दोहे लिखे हैं| ये दोहे युगबोध के दोहे हैं और अपने समय से सवाल करते हैं|

अधिकाँश दोहकारों ने बिम्बों, प्रतीकों, अलंकारों, मुहावरों का प्रयोग करके अपनी अभिव्यक्ति को प्रभावशाली और दमदार बनाया है| हालांकि कुछ लोग अभी भी उपदेशात्मक और धार्मिक दोहों पर ही अटके हुए हैं| यों तो इस संकलन के 80 प्रतिशत दोहे उद्दृत करने योग्य हैं, लेकिन हर चीज की एक सीमा होती है| इसलिए कुछ समकालीन दोहे बानगी स्वरुप प्रस्तुत हैं-

 उन हाथों को ही मिलें, सदा जलन के घाव|

तेज हवा से दीप का, जो भी करें बचाव|| (अलका शर्मा)

सूख गई संवेदना, मरी मनों की टीस|

अब कोई रोता नहीं, एक मरे या बीस|| (डॉ रामनिवास मानव)

कहाँ सिया को ले गई, स्वर्ण हिरण की चाह|

जान रहे फिर भी नहीं, हमने बदली राह|| (राहुल शिवाय)

 आम नीम सौगान वट, नागफनी कचनार|

मिट्टी रचती ही रही, अलग-अलग किरदार|| (गरिमा सक्सेना)

 गली-गली में हो रहा, नैतिकता का खून|

पट्टी काली बाँधकर, बैठा है कानून|| (रमा प्रवीर वर्मा)

 प्रेम शब्द की वेदना, घायल मन की पीर|

या तो मीरा जानती, या फिर दास कबीर|| (मनोज अबोध)

ये रोटी को खोजता, वह सोने की खान|

अपने प्यारे देश में, दो-दो हिन्दुस्तान|| (घमंडीलाल अग्रवाल)

हेरा-फेरी ने किया, यह कैसा विध्वंस|

बगुले घुसे कतार में, मौन खड़े हैं हंस|| (प्रोमिला भारती)

 हुई अश्व-सी जिंदगी, दौड़ रहे अविराम|

चबा-चबा कर थक गए, कटती नहीं लगाम|| (राजपाल गुलिया)

जिस दिन से मेरी हुई, गर्म जरा-सी जेब|

तब से मेरे छिप गए, सारे झूठ फरेब|| (धर्मपाल धर्म)

 माली भी हैरान है, देख समय का फेर|

बरगद को बौना कहें, गमले उगे, कनेर|| (रघुविन्द्र यादव)

संकलन के अधिकांश दोहे कथ्य और शिल्प दोनों दृष्टि से कसे हुए और परिपक्व हैं| लेकिन कुछ दोहों में छंद दोष रह गए हैं| पृष्ठ 22 पर “पल-पल गढ़ा समय तुझे” में मात्राएँ बढ़ रही हैं| पृष्ठ 37 पर “फ़ैल रहा है यह रोग” में भी मात्राएँ बढ़ रही हैं| पृष्ठ 39 पर “फैलाये परकास” में जबरन तुक मिलाने का प्रयास किया गया है| इसी पृष्ठ पर “बिन पंखों से नाप ले, धरती अरु अस्मान” भी अशुद्ध है| पृष्ठ 42 पर “न्याय धर्म की जीत हुई” में मात्राएँ बढ़ी हुई हैं| पृष्ठ 45 पर “सावन भादों चेत” में भी ज़बरन तुक मिलाने का प्रयास किया गया है| पृष्ठ 46 “दुख के दरवाजे घुसे, आशाओं की बेल| लिपटे हरित बबूल से, दूध-छाँछ का खेल||” में कवि क्या कहना चाहता है स्पष्ट नहीं है| पृष्ठ 50 “इतिहास के पृष्ठ यहाँ” में चरण की शुरुआत पचकल शब्द से हो रही है, जिसके कारण लय बाधित है| पृष्ठ 52 पर “मर गया वह गरीब” में प्रारम्भिक द्विकल के बाद त्रिकल आने से लय बाधित है| इसी पृष्ठ पर “रंग-रूप से चले नहीं” में मात्राएँ बढ़ रही हैं| पृष्ठ 53 पर “पंछी खेतिहर ढोर सब” में मात्राएँ बढ़ रही हैं| पृष्ठ 54 पर “पीठ से सटा पेट” तथा “चमक बढ़ गई गाँव की” में प्रारंभिक त्रिकल के बाद द्विकल आने से लय बाधित है| पृष्ठ 79 पर “चेहरों की रेखाओं में” इस चरण में मात्राएँ बढ़ गई हैं और 11वीं मात्रा भी लघु नहीं है| पृष्ठ 84 पर “उसी राम की रक्षा को” में भी मात्राएँ बढ़ी हुई हैं और 11वीं मात्रा लघु नहीं है| पृष्ठ 84 पर “हृदय विवेक विहीन कवि” में लय बाधित है| पृष्ठ 85 पर “अभी उमर वारी मेरी” में मात्राएँ बढ़ी हुई हैं और 11वीं मात्रा भी लघु नहीं है| पृष्ठ 86 पर “बोला यह तो हम मेरा” में मात्राएँ बढ़ी हुई हैं और 11वीं मात्रा भी लघु नहीं है| पृष्ठ 86 पर “हो गये अरुण कपोल” में मात्राएँ बढ़ी हुई हैं, छंद दोष है| पृष्ठ 86 पर “खिली-खिली-सी लिली भी” में 11वीं मात्रा लघु नहीं है, जो अनिवार्य है| पृष्ठ 89 पर “करो सदा गुणगान है, बहती है रसधार” में अर्थ स्पष्ट नहीं है| पृष्ठ 89 पर ही ‘प्रवाह’ का तुकांत शब्द ‘भाव’ लिया गया है, जो अशुद्ध है| पृष्ठ 91 पर “समझ-समझ का फैर” में ज़बरन तुक मिलाने का प्रयास किया है| पृष्ठ 92 पर “गुरु कृपा इस जगत में” में मात्राएँ कम हो गई हैं, छंद दोष है| पृष्ठ 92 पर ही “फाग राग संग बाजे” में 11वीं मात्रा लघु नहीं है, लय बाधित है| पृष्ठ 92 पर ही “वो रात की नींद” मात्राएँ कम हो गई हैं, छंद दोष है| पृष्ठ 97 पर अंतिम दोहे में “छाप” का तुकांत “भाँप” लिया गया है, जो अशुद्ध है| पृष्ठ 97 पर “स्वयं दौड़ती आएगी” में मात्राएँ बढ़ी हुई हैं और 11वीं मात्रा भी लघु नहीं है| पृष्ठ 102 पर “अंत समय रह जाएगा” में मात्राएँ बढ़ी हुई हैं और 11वीं मात्रा भी लघु नहीं है| पृष्ठ 105 पर “सागर में तो आयेंगे” में मात्राएँ बढ़ी हुई हैं और 11वीं मात्रा भी लघु नहीं है| पृष्ठ 106 पर “दूर रहें पर मिले ज्यों” में 11वीं मात्रा लघु नहीं है| पृष्ठ 106 पर “बुनो न सामासिक पदों, के संशय के वर्ग” में लय भंग है|

पुस्तक में प्रूफ की ढेरों अशुद्धियाँ है, जो ऐसे अखरती हैं जैसे स्वादिष्ट खीर में कंकर हों| इनके कारण भी कुछ दोहों में छंद दोष उत्पन्न हुए हैं| जैसे दिखा को देखा, दुख को दुःख, अदबी को आदबी, बढ़ा को बड़ा, जानें को जाने, आहट को आहत, शृंगार को श्रृंगार और श्रींगार, ‘को’ को के, उद्गार को उद्धार, मुझको को मूझको, मुकुलित को मुकूलित लिख दिया गया है| पृष्ठ 66 के एक दोहे से 6 मात्रा का शब्द ‘मातृसदन” ही गायब है, तो पृष्ठ 117 पर नेकी शब्द से ‘ने’ गायब है| बहुत से दोहों में या तो यति गायब है या गलत जगह लगाई हुई है| पहली भूमिका और उसमें उद्दृत किये गए दोहों में भी प्रूफ की अशुद्धियाँ हैं और दूसरी में भी|

संकलन में उपदेशात्मक दोहे भी शामिल किये गए हैं और आय, जाय, पाय, लगाय जैसे शब्दों के उपयोग वाले भी, जिनकी समकालीन दोहे में कोई जगह नहीं है| देशज और विदेशी शब्द यदि दोहे की प्रभावोत्पादकता बढ़ाते हों, तो प्रयोग करने में कोई हर्ज़ नहीं, लेकिन अंग्रेजी के रेपिस्ट शब्द का हिंदी में बहुवचन रेपिस्टों मुझे उचित नहीं लगा|

इस 120 पृष्ठीय पेपरबैक कृति का आवरण, छपाई, प्रस्तुतिकरण और कागज़ सब स्तरीय हैं| मूल्य 250 रुपये भी वाजिब ही कहा जाएगा| कुल मिलाकर यह एक अच्छा और पठनीय दोहा संकलन है जो दोहा साहित्य को समृद्ध करेगा| अकादमी का यह एक सराहनीय प्रयास है, इससे नए दोहकारों को मंच मिला है, वहीं पाठकों को वरिष्ठ दोहकारों के भी दोहे पढ़ने को मिलेंगे|

सम्पादक सुधाकर पाठक जी और टीम को बधाई| आशा है अगला संस्करण त्रुटियों को दूर करके प्रकाशित करवाएंगे| 

रघुविन्द्र यादव 

Saturday, April 12, 2025

दोहों की परम्परा को सुदृढ़ करने वाला संग्रह : नागफनी के फूल

दोहा साहित्य की वह विधा है जिसके द्वारा कवि कम से कम शब्दों में, कम से कम समय में अधिकतम बात कहने में सफल होता है| दोहा पाठक या श्रोता की चेतना को एकदम से झकझोरता है| दोहे के अर्थ को आम बौद्धिक व्यक्ति आसानी से समझ सकते हैं| रहीम से लेकर आज तक इसकी लोकप्रियता में कहीं कोई कमी नहीं आई है| 

यदि कवि संवेदनशीलता के साथ सूक्ष्म और तटस्थ दृष्टिकोण रखते हुए विविध विषयों का समावेश कर, शब्द-शक्ति का बेहतर उपयोग करता है तो दोहा और अधिक प्रभावी बन जाता है| रघुविन्द्र यादव नयी पीढ़ी के वे दोहाकार हैं जो अपने दोहों के माध्यम से कुव्यवस्था, कुरीतियों, भ्रष्टाचार, स्त्री-विमर्श, पर्यावरण, मानवीय संबंधों की बदलती परिभाषा और आम आदमी के दुःख-दर्द को केंद्र में रखकर सशक्त तरीके से, नूतनता के साथ अपनी बात कहने में सक्षम हैं|

चित्र

कुल छह पुस्तकों का लेखन-संपादन कर चुके रघुविन्द्र यादव कि कृति "नागफनी के फूल" दोहा विधा में उनका पहला संग्रह है| जिसमें तुझ में मेरी आस्था, नागफनी के फूल, नेता लूटें देश को, भूखा रहा अवाम, भ्रष्ट व्यवस्था हो गई, दौलत की दीवार, बूँद-बूँद में ज़हर, जनभाषा हिंदी बने, वीरों का सम्मान आदि 25 शीर्षकों के अंतर्गत 424 दोहे शामिल हैं|

रघुविन्द्र यादव सहित और समाज के प्रति समर्पित व्यक्ति हैं| वे सजग्त्ता से अपनी निष्ठा को न्यायप्रियता के साथ जोड़कर लेखनी के माध्यम से अपना कर्तव्य निभाने का वादा करते हैं| वे सामाजिक संरचना में आये परिवर्तन की गंभीर विवेचना करते हैं| वे जानते हैं कि मानवता की भलाई और दीर्घकालीन सुखद जीवन के लिए अच्छे लोगों का होना आवश्यक है| लेकिन कवि वर्तमान परिस्थितियों से आहत है| वह सभी से एक प्रश्न पूछते हैं| वह चाहते हैं कि सभी लोग इस प्रश्न का उत्तर ढूँढ़ें, आत्म्विश्लेष्ण करें और सकारात्मक परिवर्तन के लिए पहल करें-

गड़बड़ मौसम से हुई, या माली से भूल|
आँगन में उगने लगे, नागफनी के फूल||

कवि आम आदमी को ही भारत की असली तस्वीर मानता है| वे शाइनिंग इंडिया के भुलावे से दूर अंतिम व्यक्ति के दुःख-दर्द को महसूस करते हैं| साम्प्रदायिकता और महँगाई से आम आदमी कितना पीड़ित है, यह कुर्सी पर बैठे सफेदपोश नहीं जानते-

भड़की नफरत की कभी, कभी पेट की आग|
दुखिया के दोनों मरे, बेटा और सुहाग||

आज भी हमारा समाज अन्धविश्वास, कुरीतियों, रूढ़ियों और पाखण्ड से ग्रस्त है| इन पर खर्च होने वाला धन अगर समाज विकास पर खर्च हो तो उन्नति का मार्ग प्रशस्त हो सकता है| लेकिन दिखावे का जीवन जीने के आदि हो चुके लोग आज भी उसी पुरानी पतन की राह पर हैं| कवि का कोमल हृदय बुजुर्गों के साथ होने वाले दुर्व्यवहार और तिरस्कार से भी आहत है| विभिन्न उदेश्यों को लक्षित करता उनका एक दोहा देखिये-

दो रोटी के वास्ते, मरता था जो रोज़| 
मरने पर उसके हुआ, देशी घी का भोज||

हरियाणा पूरे देश में खापों के फरमानों की वजह से चर्चा में रहता हा खाप पंचायतें समाज के सौहार्द और मनुष्य की भलाई के लिए कार्य करें तो प्रशंसनीय हैं, लेकिन अगर वे कानून अपने हाथ में लें तो वह संविधान और देश की गरिमा के खिलाफ है| सबके अपने नैतिक मानदंड हो सकते हैं, लेकिन इन्हें जाति या धर्म के नाम पर दूसरों पर थोपना तानाशही है-

गला प्यार का घोंटते, खापों के फ़रमान|
जाति धर्म के नाम पर, कुचल रहे अरमान||

वर्तमान दौर में कुर्सी की चाह इतनी प्रबल है कि हर कोई बहती गंगा में हाथ धोना चाहता है-

कुर्सी खातिर लड़ रहे, सज्जन संत फ़क़ीर|
नैतिकता की राह में, घायल पड़े कबीर||

यहाँ नाम का ही लोकतंत्र है| आजादी के बाद से आज तक सत्ता चुनिन्दा हाथों में ही रही है| कवि वंशवाद की राजनीति का विरोध करता है-

भीड़तंत्र को दे दिया, लोकतंत्र का नाम|
राज खडाऊं कर रही, बदला कहाँ निज़ाम||

न्यायपालिका लोकतंत्र का मजबूत स्तम्भ होती है, लेकिन हमारी न्याय प्रणाली धीमी गति से कार्य करती है| इसलिए लोगों को समय से न्याय नहीं मिल पाता| न्याय में देरी भी अन्याय के समान है-

बूढी अम्मा मर गई, कर-कर नित फ़रियाद|
हुआ केस का फैसला, बीस बरस के बाद||

धार्मिक आस्था का दोहन आज चरम पर है| अनपढ़, ढोंगी बाबा भी दर्शन-शास्त्र की बात करते हैं और गोल-गोल घुमाते हुए सामने वाले को अपनी गिरफ्त में ले लेते हैं| महिलायें उनका आसान शिकार होती हैं-

सास-ससुर लाचार हैं, बहू न पूछे हाल|
डेरे में सेवा करे, बाबा हुआ निहाल||

पर्यावरण संरक्षण कार्यकर्त्ता से कवि बने श्री यादव प्रकृतिवादी हैं| वे पर्यावरण में होने वाले परिवर्तन को देखते-समझते हैं| एक बेहद रोचक नूतन प्रयोग के साथ वे जल की महिमा बताते हुए कहते हैं-

जल से कुछ जल बिन मरे, जल कर मरे हज़ार|
जलते को जल दे बुझा, जल जीवन का सार||

रघुविद्र यादव के दोहों में पैनापन. विविधता, नूतन प्रयोग, आम आदमी के हित में बहने वाली प्रवाहमय शैली, कलात्मकता व आशावाद है| उनके दोहों में कटु जीवन यथार्थ को, नग्न युगबोध को धारदार अभिव्यक्ति मिली है| रघुविन्द्र यादव के दोहे कथ्य और शिल्प दोनों दृष्टि से हमें आश्वस्त करते हैं| 

पुस्तक का आवरण आकर्षक, छपाई सुंदरा और कागज़ स्तरीय है| प्रूफ की कोई अशुद्धि नज़र नहीं आती| बहर्लाक रघुविन्द्र यादव का यह दोहा संग्रह न केवल दोहा के प्रशंसकों को अपितु अन्य विधाओं के चाहने वालों को भी पसंद आएगा, ऐसी आशा है| दोहों की परम्परा को सुदृढ़ करने वाली यह पुस्तक स्वागत योग्य है|

डॉ. सुशील शीलू 
मंडलाना, नारनौल 

Monday, September 16, 2024

दुरूहता से दूर, काव्य-रस से भरपूर दोहे

दुरूहता से दूर, काव्य-रस से भरपूर दोहे

शब्द-कुठारा चल पड़ा, करने जमकर वार।
केवल शुचिता बच रहे, सुन्दर हो संसार।।

आये याद कबीर दोहाकार रघुविन्द्र यादव का तीसरा दोहा संग्रह है| कवि का आक्रोश है– व्यवस्था की कुचालों, सत्ता के दुराचरण, वैयक्तिक आडम्बरप्रियता, रिश्तों के खोखलेपन, अंधभक्ति, तथाकथित संतों की शर्मनाक करतूतों, माता-पिता के प्रति संतान के उपेक्षित व्यवहार, स्वार्थ की पराकाष्ठा, किसान-मजूर की दुर्दशा, घटते भाईचारे, मीडिया की कारगुजारी, नशाखोरी, संवेदनहीनता, कूपमण्डूकता तथा सामाजिक भेदभाव के प्रति। विसंगतियों, विद्रूपताओं को केन्द्र में रखकर कलम चलाई गई है, वहीं कवि मानव मात्र को संदेश देना नहीं भूला है। पीड़ा के इन मजमूनों में खुदा को भी नहीं बख़्शा गया–

ऊपर बैठे लिख रहा, सबके जीवन लेख।
हिम्मत है तो या खुदा, जग में आकर देख।।

जीवन है तो समस्याएँ हैं; उनके निराकरण हेतु कवि का आह्वान है–

हाथ बढाओ साथियो, मन से खौफ निकाल।
आओ सत्ता से करें, खुलकर रोज़ सवाल।।

संग्रह के अनेक दोहे कालजयी कोटि के हैं, यथा –

कुत्ता बेशक भौंक ले, कितनी ऊँची टेर।
वही रहेगा उम्र भर, नहीं बनेगा शेर।।

दौलत देती है कहाँ, कभी किसी का साथ। 
सभी सिकंदर लौटते, जग से खाली हाथ।।
 
छंद तपस्या माँगते, यादव रखना याद।
बिना तपे बनता नहीं, लोहा भी फौलाद।।

दिन-दिन बिगड़ते माहौल को देखकर कवि चेताता है-

गलत-सही का फैसला, अगर करेगी भीड़।
भाईचारा छोड़िये, नहीं बचेंगे नीड़।।

आमजन को सचेत किया है कि कुपात्र को सत्ता सौंपने से बचें अन्यथा–

झूठों को सत्ता मिले, भांड़ों को सम्मान।
हिस्से में ईमान के, तपता रेगिस्तान।।

दोहाकार की प्रश्नाकुलता साझी प्रश्नाकुलता हो जाती है जब वे कहते हैं–

भूखा है हर आदमी, सबके लब पर प्यास।
सरकारें करती रहीं, जाने कहाँ विकास।।

पाठक की अंतश्चेतना को झकझोरता एक अन्य उदाहरण है–

हिम्मत टूटी हंस की, डोल गया विश्वास।
काग मिले जब मंच पर, पहने धवल लिबास।।

भाव-गहनता के आधार पर मैं इस दोहे को सबसे ऊपर रखती हूँ–

जीवन भर लड़ता रहा, मैं औरों से युद्ध।
वो खुद से लड़कर हुआ, पल भर में ही बुद्ध।।

भाव व कला की उत्कृष्टता का नमूना देखिए–

कनक खेत में खप गई, सस्ती बिकी कपास।
रामदीन रुखसत हुआ, खा गोली सल्फास।।

कवि की व्यंजना-क्षमता को प्रमाणित करता है यह दोहा–

कितने दर्द अभाव हैं, झोपड़ियों के पास।
फिर भी महलों की तरह, रहती नहीं उदास।।

कवि पुन: पुन: सत्ता के स्वभाव पर चुटकी लेता नहीं थकता–

सत्ता ने अब कर लिए, आँख, कान सब बंद।
उसको शब्द विरोध के, बिलकुल नहीं पसंद।।

प्रतीक शैली, विरोधाभास अलंकार तथा कटूक्तियों का खुलकर प्रयोग किया गया है, प्रत्येक का एक-एक उदाहरण पेश है–

सूरज की पेशी लगी, जुगनू के दरबार।
हुई गवाही रात की, दोषी दिया करार।।

खुद को अब हीरा कहो, बढ़-चढ़ बोलो बोल।
जितना बढ़िया झूठ है, उतना ऊँचा मोल।।

भात-भात करते मरी, भारत की संतान।
शासक गंगा गाय की, छेड़ रहे हैं तान।।

दोहों में लयात्मकता, गेयता, ध्वन्यात्मकता के गुण विद्यमान हैं। कला पक्ष, भाव-पक्षपर खरे उतरते हैं ये दोहे। संग्रह का मुखपृष्ठ अर्थपूर्ण व मूल्य वाज़िब है। दोहाकार ने आत्मकथ्य में अपने दोहों की चोरी की बात लिखी है। देखिए न, मोतियों के सामने कंकरों की क्या बिसात? चोरी करनी ही है तो यूनीक की करे। मेरे कथन का अर्थ चौर्य-कर्म को मान्यता देने से नहीं, कवि के रचना-कौशल से है। साहित्यिक गलियारों में प्राय: पाठकों की कमी का रोना रोया जाता है। मेरे मतानुसार लेखन में दम हो तो पाठकों की कमी नहीं। वस्तुत: यही है लेखन की सार्थकता और कवि/लेखक की सफलता। कवि की इस चाहना से भला कौन सहमत नहीं होगा–

पढ़ पायेंगे क्या कभी, ऐसा भी अख़बार।
जिसमें केवल हो लिखा, प्यार, प्यार बस प्यार।।

रघुविन्द्र यादव डंके की चोट पर नाद करते हैं–

बेशक जाए जान भी, सत्य लिखूँगा नित्य।
क्या है बिना ज़मीर के, जीने का औचित्य?

कामना है, कवि का यह हौंसला नित नई बुलंदी पाता रहे। संग्रह के प्रकाशन पर हार्दिक बधाई एवं अनन्त शुभकामनाएँ।

-कृष्णलता यादव
गुरुग्राम 122001

कबीराना अंदाज़ के दोहे : आये याद कबीर

कबीराना अंदाज़ के दोहे : आये याद कबीर

अर्द्धसम मात्रिक छंद दोहा बेहद प्राचीन सनातनी छंद रहा है। समय,काल और परिस्थितियों के साथ इसका कथ्य भले ही बदला हो, किंतु इसका मानक शास्त्रीय पक्ष एवं शिल्प ज्यों का त्यों रहा है। भक्ति काल,रीति काल तथा आधुनिक काल के दोहों का अपना-अपना महत्व है। अनेक संत कवियों को उनके दोहों की रचनाधर्मिता ही अमर कर गई। 
 
अपनी संक्षिप्तता,गागर में सागर, वक्रता, मारक क्षमता तथा कहन के अंदाज़ के चलते दोहे का जादू हर काल में सिर चढ़कर बोलता रहा है। यदि दोहे में से उपरोक्त घटकों को निकाल दिया जाए तो तेरह ग्यारह मात्राओं की इस सपाटबयानी को महज़ तुकबंदी ही कहा जाएगा।

समीक्ष्य कृति 'आये याद कबीर' दोहा के पर्याय कहे जाने वाले रचनाकार रघुविंद्र यादव का तीसरा दोहा संग्रह है,जिसमें मानक दोहा प्रारूप के तमाम मूलपक्ष देखे जा सकते हैं। कबीराना अंदाज,तल्ख मिजाज तथा विरोध की जनपक्षीय आवाज इस संग्रह की समग्र रचनाधर्मिता कि केंद्र में निहित है। 

दोहाकार सामाजिक विसंगतियों तथा विद्रूपताओं चित्रणभर ही नहीं करता, यथोचित शाब्दिक लताड़ भी मारता है। कुछ बानगियांँ देखिएगा-

पीट रहे हैं लीक को, नहीं समझते मर्म।
आडंबर को कह रहे, कुछ नालायक धर्म।।

गिरवी दिनकर की कलम,पढ़ें कसीदे मीर।
सुख-सुविधा की हाट में, बिकते रोज कबीर।।

ज्ञानी-ध्यानी मौन हैं,मूढ़ बांँटते ज्ञान।
पाखंडों के दौर है,सिर धुनता विज्ञान।।

संग्रह के तमाम दोहे व्यवस्था तथा सामाजिक दोगलेपन पर करारी चोट करते हैं। संग्रह में प्रतीकों का सहज समावेश प्रभाव छोड़ता है-

ख़ूब किया सय्याद ने, बुलबुल पर उपकार।
पंख काट कर दे दिया, उड़ने का अधिकार।।

हिम्मत टूटी हंस की, डोल गया विश्वास।
काग मिले जब मंच पर, पहने धवल लिबास।।

झूठ युधिष्ठिर बोलते, करण लूटते माल।
विदुर फिरौती ले रहे, केशव करें मलाल।।

विरोध के मूल स्वर में पगे इन दोहों से के माध्यम से सामाजिक तथा राजनीतिक जीवन में निरंतर हो रहे अवमूल्यन को सहज ही समझा जा सकता है-

नैतिकता ईमान से, वक्त गया है रूठ।
सनद मांगता सत्य से, कुर्सी चढ़कर झूठ।।

कहांँ रहेंगे मछलियांँ, सबसे बड़ा सवाल।
घड़ियालों ने कर लिए, कब्जे में सब ताल।।
 
विषय-विविधता, कलात्मक आवरण,सुंदर छपाई संग्रह की अतिरिक्त खूबियां हैं|
 
-सत्यवीर नाहड़िया

आओ दोहा लिखें

दोहा कैसे लिखें  

दोहा लिखने के नियम 

दोहा लिखने के लिए मात्राओं की गिनती कैसे करें 

दोहे का व्याकरण

आज दोहा लोकप्रियता के शिखर पर, इसलिए हर रचनाकार चाहता है कि वह भी दोहे लिखे| किन्तु दोहा जितना छोटा और सीधा दिखता है लिखना उतना सरल नहीं है| परिणामस्वरूप बहुत कम लोग ही मानक दोहे लिख पाते हैं| क्योंकि-
दीरघ दोहा अर्थ के, आखर थोरे आहि|
ज्यों रहीम नट कुंडली, सिमिट कूद चलि जाहि||

अर्थात दोहे में अक्षर भले ही कम होते हैं, लेकिन उसे दीर्घ अर्थ वाला होना चाहिए और दोहाकार को नट की भांति कुशल होना चाहिए| जैसे एक नट अपने सारे शरीर को साध कर कुंडली में से निकाल देता है वैसे ही दोहाकार को भी दोहा रचने में सक्षम होना चाहिए|

दो पंक्तियों और चार चरणों में 13-11, 13-11 के क्रम में कुल 48 मात्राओं से लिखा जाने वाला छंद दोहा कहलाता है। इससे कम या अधिक मात्राओं वाली रचना मानक दोहा की श्रेणी में नहीं आती। मात्राओं के अलावा दोहे का कथ्य, शिल्प, भाव और भाषा भी प्रभावशाली हो।

आधुनिक दोहा को लोकप्रिय बनाने में सर्वाधिक योगदान करने वाले आचार्य देवेन्द्र शर्मा ‘इन्द्र’ के अनुसार-''दोहा छंद की दृष्टि से एकदम चुस्त-दुरुस्त और निर्दोष हो। कथ्य सपाट बयानी से मुक्त हो। भाषा चित्रमयी और संगीतात्मक हो। बिंब और प्रतीकों का प्रयोग अधिक से अधिक मात्रा में हो। दोहे का कथ्य समकालीन और आधुनिक बोध से संपन्न हो। उपदेशात्मक नीरसता और नारेबाजी की फूहड़ता से मुक्त हो।"

डॉ. अनंतराम मिश्र ‘अनंत’ ‘दोहे की आत्मकथा’ में लिखते हैं- ''भाषा मेरा शरीर, लय मेरे प्राण और रस मेरी आत्मा है। कवित्व मेरा मुख, कल्पना मेरी आँख, व्याकरण मेरी नाक, भावुकता मेरा हृदय तथा चिंतन मेरा मस्तिष्क है। प्रथम-तृतीय चरण मेरी भुजाएँ एवं द्वितीय-चतुर्थ चरण मेरे चरण हैं।"

आशय यह कि प्रथम और तृतीय चरण में 13-13 और दूसरे तथा चौथे चरण में 11-11 मात्राएँ जोड़ लेने भर से दोहा नहीं बन जाता। इसके लिए और भी बहुत कुछ चाहिए। दोहे के प्रथम और तृतीय चरण का समापन लघु गुरु या तीन लघु से होना अनिवार्य है। इसी प्रकार दोहा के दूसरे और चौथे चरण का अंत गुरु लघु से होना अनिवार्य है।

दोहा एक अर्धसम मात्रिक छंद है, इसलिए सबसे पहले मात्राओं की गणना का ज्ञान होना बहुत आवश्यक है। जब तक मात्राओं की गणना का सही ज्ञान नहीं होगा मानक दोहा नहीं लिखा जा सकता। दोहे के व्याकरण पर यूँ तो विद्वानों ने बहुत कुछ लिखा है| ‘छंद प्रभाकर’ से लेकर पत्र-पत्रिकाओं तक इस छंद की जानकारी मिलती है| किन्तु नए रचनाकारों की सुविधा के लिए यहाँ मात्राओं की गणना से लेकर दोहे की रचना तक की जानकारी सरल भाषा में देने का प्रयास किया जा रहा है|

मात्राओं की गणना निम्रप्रकार की जाती है-

 हिन्दी भाषा के सभी व्यंजनों की एक मात्रा (।) मानी जाती है। लघु स्वर अ, इ, उ, ऋ की भी (।) मात्रा ही मानी जाती हैं। जबकी दीर्घ स्वर आ, ई, ऊ, ए, ऐ ओ और औ की मात्राएँ दीर्घ (ऽ) मानी जाती हैं। व्यंजनों पर लघु स्वर अ, इ, उ, ऋ आ रहे हों तो भी मात्रा लघु (।) ही रहेगी। किंतु यदि दीर्घ स्वर आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ की मात्राएँ आ रही हों तो मात्रा दीर्घ (ऽ) हो जाती है।

अर्ध-व्यंजन और अनुस्वार/बिंदु (.)की आधी मात्रा मानी जाती है। मगर आधी मात्रा की स्वतंत्र गणना नहीं की जाती। यदि अनुस्वार अ, इ, उ अथवा किसी व्यंजन के ऊपर प्रयोग किया जाता है तो मात्राओं की गिनती करते समय दीर्घ मात्रा मानी जाती है किन्तु स्वरों की मात्रा का प्रयोग होने पर अनुस्वार (.) की मात्रा की कोई गिनती नहीं की जाती।

आधे अक्षर की स्वतंत्र गिनती नहीं की जाती बल्कि अर्ध-अक्षर के पूर्ववर्ती अक्षर की दो मात्राएँ गिनी जाती है। यदि पूर्ववर्ती व्यंजन पहले से ही दीर्घ न हो अर्थात उस पर पहले से कोई दीर्घ मात्रा न हो। उदाहरण के लिए अंत, पंथ, छंद, कंस में अं, पं, छं, कं सभी की दो मात्राए गिनी जायेंगी इसी प्रकार शब्द, वक्त, कुत्ता, दिल्ली इत्यादि की मात्राओं की गिनती करते समय श, व, क तथा दि की दो-दो मात्राएँ गिनी जाएँगी। इसी प्रकार शब्द के प्रारंभ मेें आने वाले अर्ध-अक्षर की मात्रा नहीं गिनी जाती जैसे स्वर्ण, प्यार, त्याग आदि शब्दों में स्, प् और त् की गिनती नहीं की जाएगी। प्रारम्भ में संयुक्त व्यंजन आने पर उसकी एक ही मात्रा गिनी जाती है। जैसे श्रम, भ्रम, प्रभु, मृग। इन शब्दों मेें श्र, भ्र, प्र तथा मृ की एक ही मात्रा गिनी जाएगी।

अनुनासिक/चन्द्र बिन्दु की कोई गिनती नहीं की जाती। जैसे- हँस, हँसना, आँख, पाँखी, चाँदी आदि शब्दों में अनुनासिक का प्रयोग होने के कारण इनकी कोई मात्रा नहीं मानी जाती।

नोट:- दोहे में मात्रा गिराने का कोई प्रावधान नहीं है| हालांकि "और" के स्थान पर (औ') का प्रयोग किया जाता है| इसी प्रकार "दुःख" को (दुख) लिखकर दो मात्रा के रूप में प्रयोग किया जाता है|  

दोहा यदि लयात्मक है तो उसमें छंद दोष होने की सम्भावना न के बराबर होती है| किन्तु जिन लोगों को संगीत का ज्ञान नहीं है उनके लिए इसे तय करना मुश्किल होता है, इसलिए कौन से चरण में क्या होना चाहिए और क्या वर्जित है उसकी चर्चा करते हैं-

दोहे का प्रथम और तृतीय चरण-

दोहा लयबद्ध रहे इसके लिए इसे केवल दो, तीन, चार और छह मात्राओं वाले शब्दों से ही शुरू किया जाता है, पाँच मात्राओं वाले शब्द से दोहा का कोई चरण शुरू नहीं किया जाता। प्रथम और तृतीय चरण शुरू करने के मात्रिक गणों के हिसाब से कुल 34 भेद छंद विशेषज्ञों ने तय किए हैं। इसी प्रकार दूसरे और चौथे चरण के लिए 18 भेद तय किए हैं। जिनका क्रमवार विवरण निम्रांकित है-

दो मात्राओं से दोहा शुरू करने के विद्वानों ने मात्रिक गणों के अनुसार 12 भेद बताए हैं-

2, 2, 2, 2, 2, 3 जैसे- दुख-सुख में जो सम रहे (होता सच्चा संत)
2, 2, 2, 2, 3, 2 जैसे- अब तक भी है गाँव में (कष्टों की भरमार)
2, 2, 2, 4, 3 जैसे- घर तो अब सपना हुआ (महंगी रोटी दाल)
2, 2, 4, 2, 3 जैसे- दिन-दिन बढ़ते जा रहे (झूठ और पाखंड)
2, 4, 2, 3, 2 जैसे- इक मानव की भूख है (इक सागर की प्यास)
2, 4, 2, 5 जैसे- धन-दौलत को मानते (जो अपना भगवान्)
2, 2, 4, 5 जैसे- घर की खातिर चाहिए (त्याग समर्पण प्यार)
2, 2, 4, 3, 2 जैसे- धन की अंधी दौड़ में (दौड़ रहे हैं लोग)
2, 5, 4, 2, जैसे- सब गद्दार निकाल दो (ले संकल्प महीप)
2, 6, 3, 2 जैसे- माँ सुलझाती गाँठ सब (पथ करती आसान)
2, 2, 6, 3 जैसे- नख भी कटवाया कभी (आता है क्या याद)
2, 6, 2, 3 जैसे- पढ़ पायेंगे क्या कभी (ऐसा भी अखबार)
दो मात्रा से प्रारम्भ होने वाले प्रथम और तृतीय चरण में शुरू में दो मात्रा के बाद तीन मात्रा वाला शब्द नहीं आता। इसी प्रकार प्रारंभ में दो के बाद चार मात्रा आने पर तीन मात्रा नहीं आती। साथ ही शुरू में तीन बार दो-दो मात्रा वाले शब्द आ रहे हों तो उनके बाद भी तीन मात्रा नहीं आती। प्रारंभ में दो मात्रा के बाद छह मात्रा आने पर उसके बाद चार मात्रा नहीं आती।

तीन मात्राओं से प्रथम और तृतीय चरण शुरू करने के आठ भेद बताए गए हैं-

3, 3, 2, 3, 2 जैसे- सजे हुए हैं ताज में (बिन खुशबू के फूल)
3, 3, 2, 2, 3 जैसे- प्यार दिनों दिन बढ़ रहा (यूं यारों के बीच)
3, 3, 2, 5 जैसे- निकल पड़ा जो ढूँढने (पाई उसने राह)
3, 5, 5, जैसे- बम्ब, धमाके, गोलियां (खून सने अखबार)
3, 5, 2, 3 जैसे- कोख किराये पर चढ़ी (ममता हुयी नीलाम)
3, 3, 4, 3 जैसे- नया दौर रचने लगा (नए-नए प्रतिमान)
3, 5, 3, 2 जैसे- एक अकेली जान अब (चारों पर है भार)
3, 3, 5, 2 सास-ससुर लाचार हैं (बहू न पूछे हाल)
शुरू में तीन मात्रा शब्द के बाद दो, चार और छह मात्रा वाले शब्द नहीं आते। इसी प्रकार शुरू में तीन के बाद पाँच मात्रा हों तो उसके बाद चार मात्रा वाला शब्द नहीं आएगा।

चार मात्राओं से दोहे का प्रथम और तृतीय चरण शुरू करने के 10 भेद विद्वानों द्वारा बताए गए हैं-

4, 4, 3, 2 जैसे- मंदिर मस्जिद चर्च में (हुआ नहीं टकराव)
4, 4, 2, 3 जैसे- देवी कहता है जिसे (रहा गर्भ में मार)
4, 4, 5 जैसे- गाड़ी, बँगले, चेलियाँ (अरबों की जागीर)
4, 2, 4, 3 जैसे- चंदन वन गायब हुआ (उगने लगे बबूल)
4, 2, 2, 2, 3 जैसे- गाँवों में भी आ गया (शहरों वाला रोग)
4, 2, 2, 3, 2 जैसे- मरना है हर हाल में (सुन ले अरे किसान)
4, 2, 2, 5 जैसे- लिखने का क्या फायदा (कलम अगर लाचार)
4, 3, 3, 3 जैसे- अच्छा हुआ न मिल सके (गंजों को नाखून)
4, 2, 5, 2 जैसे- दोनों दल खुशहाल हैं (करता देश विलाप)
4, 3, 4, 2 जैसे- देने लगा समाज भी (पैसे को अधिमान)
चार मात्रा से शुरू होने वाले प्रथम और तृतीय चरण में प्रारंभिक चार के बाद पाँच मात्रा वाला शब्द नहीं आता। इसी प्रकार यदि चार मात्रा वाले शब्द के बाद दो मात्रा वाला शब्द आ रहा हो तो उसके बाद तीन मात्रा वाला शब्द नहीं आता।

छह मात्राओं वाले शब्द से दोहे के प्रथम और तृतीय चरण की शुरूआत करने के चार भेद होते हैं-

6, 2, 2, 3 जैसे- चौराहों पर लुट रही (अबलाओं की लाज)
6, 2, 3, 2 जैसे- सुविधाओं की चाह में (बिकता है ईमान)
6, 4, 3 जैसे- रामकथा करने लगे (बगुले बनकर सिद्ध)
6, 5, 2 जैसे- चौपालें खामोश हैं (पनघट है वीरान)
छह मात्रा वाले शब्द के बाद तीन मात्रा वाला शब्द नहीं आता।

दोहे का द्वितीय और चतुर्थ चरण-

प्रथम और तृतीय चरण की तरह ही दोहे का दूसरा और चौथा चरण भी केवल दो, तीन, चार और छह मात्राओं से ही शुरू होता है। 

दो मात्रा से शुरू होने वाले दूसरे और चौथे चरण के विद्वानों ने आठ भेद बताए हैं-

2, 2, 2, 2, 3 जैसे- (झूठ मलाई खा रहा) छल के सिर पर ताज|
2, 2, 2, 5 जैसे- (दिन-दिन बढ़ते जा रहे) घर में ही गद्दार|
2, 2, 4, 3 जैसे- (बरगद रोया फूटकर) घुट-घुट रोया नीम|
2, 2, 3, 4 जैसे- (मातृसदन घर पर लिखा) माँ को दिया निकाल
2, 4, 2, 3 जैसे- (दानव से बदतर हुई) अब मानव की सोच|
2, 4, 5 जैसे- (झूठे मिलकर सत्य को) कर देते लाचार|
2, 5, 4 जैसे- (सब गद्दार निकाल दो) ले संकल्प महीप|
2, 6, 3 जैसे- (मनसब की यदि आरजू) गा दरबारी राग|
दोहा के दूसरे और चौथे चरण की शुरूआत दो मात्रा वाले शब्द से हो रही हो तो उसके बाद तीन मात्रा वाला शब्द नहीं आता।

तीन मात्रा वाले शब्द से दूसरे और चौथे चरण की शुरूआत के निम्र भेद तय किए गए हैं-

3, 3, 5 जैसे- (फैला भ्रष्टाचार का) सभी ओर आतंक|
3, 5, 3 जैसे- (ऊन काटकर भेड़ को) दिया दुशाला दान|
3, 3, 2, 3 जैसे- (जिसके पीछे भीड़ है) वही सफल है आज|
इसका चौथा भेद भी होता है जिसमें 3, 2, 3, 3 मात्राएँ होती हैं, किंतु बीच की मात्राएँ 2 और 3 वास्तव में पाँच मात्राओं वाले शब्द के रूप में ही प्रयोग की जाती हैं। जैसे अध जले, अन मने।
तीन मात्रा से शुरू हो रहे दूसरे और चौथे चरण में प्रारंभिक तीन मात्रा वाले शब्द के बाद दो मात्रा वाला शब्द नहीं आता।

चार मात्राओं वाले शब्द से दूसरे और चौथे चरण की शुरूआत के चार भेद बताए गए हैं-

4, 4, 3 जैसे- (राशन मुखिया खा गया) मिटती कैसे भूख |
4, 3, 4 जैसे- (भाव जमीनों के बढे) सस्ते हुए ज़मीर|
4, 2, 2, 3 जैसे- (छोड़ गया वो पूत भी) रोने को दिन-रैन|
4, 2, 5 जैसे- (बाँट दिया किसने यहाँ) नफ़रत का सामान|
चार मात्रा से शुरू होने वाले दूसरे और चौथे चरण में छह मात्रा वाले शब्दों का प्रयोग नहीं होता। इसी प्रकार चार मात्रा वाले शब्द के ठीक बाद पाँच मात्रा वाला शब्द नहीं आता।

छह मात्राओं से दूसरे और चौथे चरण की शुरूआत के केवल दो ही भेद विद्वानों ने बताए हैं-

6, 2, 3 जैसे- (सन्नाटा है गाँव में) खौफज़दा हैं लोग|
6, 5 जैसे- (सांप नेवलों ने किया) समझौता चुपचाप|

छह मात्राओं से शुरू होने वाले दूसरे और चौथे चरण में चार मात्राओं वाले शब्द का प्रयोग नहीं हो सकता। इसी प्रकार छह मात्रा वाले शब्द की ठीक बाद तीन मात्रा वाला शब्द नहीं आता।

इसके साथ-साथ कुछ और भी नियम विद्वानों ने तय किए हैं जैसे-

1. दोहे का प्रथम और तृतीय चरण जगण अर्थात ।ऽ। मात्रा वाले शब्द से शुरू नहीं किया जा सकता। जैसे जमीन, किसान आदि शब्द।
2. दूसरे चरण के अंत में चार मात्रा वाला शब्द हमेशा जगण अर्थात ।ऽ। मात्रा के रूप में ही आता है।

उपरोक्त नियमों को ध्यान में रखते हुए यदि दोहे की रचना की जाए तो उसके लयात्मक और धारदार होने की संभावना बढ़ जाती है।

-रघुविन्द्र यादव

Sunday, October 11, 2020

हरियाणा के समकालीन दोहाकार और उनके दोहा संग्रह

हरियाणा में रचित दोहा साहित्य 

हरियाणा के दोहाकार और उनके दोहा संग्रह 

हरियाणा का प्रथम दोहा संग्रह

अर्द्धसम मात्रिक छंद दोहा भारत में प्राचीन काल से ही प्रचलित और लोकप्रिय रहा है| संस्कृत में इसे ‘दोग्धक’ कहा जाता था| जिसका अर्थ है- जो श्रोता या पाठक के मन का दोहन करे| इसे दोहक, दूहा, दोहरा, दोहड़ा, दोहयं, दोहउ, दुवह और दोहअ भी कहा जाता रहा है, लेकिन अब यह दोहा के नाम से ही लोकप्रिय है| 

वह लयात्मक काव्य रचना जो 13-11, 13-11 के क्रम में दो पंक्तियों और चार चरणों में कुल 48 मात्राओं के योग से बनी हो, जिसके प्रथम और तृतीय चरणों का अंत लघु-गुरु से तथा दूसरे और चैथे चरणों का अंत गुरु-लघु से होता हो और जो पाठक या श्रोता के मन मस्तिष्क पर अपना प्रभाव छोड़ सके, दोहा कहलाती है। 

मात्राओं के अलावा दोहे का कथ्य और भाषा भी समकालीन और प्रभावशाली हो| किसी भी चरण का आरम्भ पचकल और जगण शब्द से न हो| यदि कोई रचना ये शर्तें पूरी करती है तभी उसे ‘मानक दोहा’ माना जाता है| 

दोहा छ्न्द सदियों लम्बी यात्रा तय करके आज नया दोहा अथवा आधुनिक दोहा बन चुका है। जिस प्रकार भाषाओं का क्रमिक विकास होता है उसी प्रकार साहित्य की विधाओं का विकास भी क्रमिक रूप से ही होता है। इसकी कोई निश्चित अवधि नहीं होती। दोहा छंद के नया दोहा बनने की भी कोई अवधि निश्चित नहीं है। हाँ इतना अवश्य कहा जा सकता है कि नया दोहा बीसवीं सदी के अंतिम दो दशकों में फला-फूला। हालांकि इसकी नींव पहले ही रखी जा चुकी थी। मैथिलिशरण गुप्त जी का यह दोहा इस तथ्य की पुष्टि करता है- 

अरी! सुरभि जा, लौट जा, अपने अंग सहेज। 
तू है फूलों की पली, यह काँटों की सेज।।1 

    नया दोहा को लोकप्रिय बनाने में सर्वाधिक महत्तवपूर्ण भूमिका निभाने वाले वरिष्ठ नवगीतकार और दोहाकार देवेन्द्र शर्मा ‘इन्द्र’ जी के अनुसार “नयी कहानी, नयी कविता, नयी समीक्षा की भांति गीत भी नवगीत के रूप में अपनी विशिष्ट पहचान बनाने में कामयाब हुआ तो ग़ज़ल भी नयी ग़ज़ल हो गई और दोहा भी नये दोहे के रूप में जाना जाने लगा।”2 

    विभिन्न विद्वानों ने समकालीन दोहा को विभिन्न प्रकार से परिभाषित किया है| प्रोफेसर देवेन्द्र शर्मा ‘इंद्र’ दोहे की विशेषता कुछ यूँ बताते हैं- “दोहा छंद की दृष्टि से एकदम चुस्त-दुरुस्त और निर्दोष हो| कथ्य सपाट बयानी से मुक्त हो| भाषा चित्रमयी और संगीतात्मक हो बिम्ब और प्रतीकों का प्रयोग अधिक से अधिक मात्रा में हो| दोहे का कथ्य समकालीन और आधुनिक बोध से सम्पन्न हो| उपदेशात्मक नीरसता और नारेबाजी की फूहड़ता से मुक्त हो|”3 

    डॉ. अनंतराम मिश्र ‘अनंत’ दोहे की आत्मकथा में लिखते हैं- “भाषा मेरा शरीर, लय मेरे प्राण, और रस मेरी आत्मा है| कवित्व मेरा मुख, कल्पना मेरी आँख, व्याकरण मेरी नाक, भावुकता मेरा हृदय तथा चिंतन मेरा मस्तिष्क है| प्रथम और तृतीय चरण मेरी भुजाएँ एवं द्वितीय और चतुर्थ चरण मेरे चरण हैं|”4 

    श्री जय चक्रवर्ती समकालीन दोहे को परिभाषित करते हुए कहते हैं- “समकालीन दोहे का वैशिष्टय यह है कि इसमें हमारे समय की परिस्थितियों, जीवन संघर्षों, विसंगतियों, दुखों, अभावों और उनसे उपजी आम आदमी की पीड़ा, आक्रोश, क्षोभ के सशक्त स्वर की उपस्थिति प्रदर्शित होने के साथ-साथ मुक्ति के मार्ग की संभावनाएं भी दिखाई दें|”5 

    श्री हरेराम समीप परम्परागत और आधुनिक दोहे का भेद स्पष्ट करते हुए लिखते हैं- “परम्परागत दोहों से आधुनिक दोहा का सौन्दर्यबोध स्वाभाविक रूप से बदला है| अध्यात्म, भक्ति और नीतिपरक दोहों के स्थान पर अब वह उस आम-जन का चित्रण करता है, जो उपेक्षित है, पीड़ित है, शोषित है और संघर्षरत है| इस समूह के दोहे अपने नए अंदाज़ में तीव्र और आक्रामक तेवर लिए हुए हैं| अत: जो भिन्नता है वह समय सापेक्ष है| इसमें आस्वाद का अन्तर प्रमुखता से उभरा है| इन दोहों में आज का युगसत्य और युगबोध पूरी तरह प्रतिबिंबित होता है|”6 

    डॉ.राधेश्याम शुक्ल के अनुसार, “आज के दोहे पुरानी पीढ़ी से कई संदर्भों, अर्थों आदि में विशिष्ट हैं| इनमे भक्तिकालीन उपदेश, पारम्परिक रूढ़ियाँ और नैतिक शिक्षाएँ नहीं हैं, न ही रीतिकाल की तरह श्रृंगार| अभिधा से तो ये बहुत परहेज करते हैं| ये दोहे तो अपने समय की तकरीर हैं| युगीन अमानुषी भावनाओं, व्यवहारों और परिस्थितियों के प्रति इनमें जुझारू आक्रोश है, प्रतिकार है, प्रतिवाद है|”7 

    समकालीन दोहा देश-विदेश के साथ-साथ हरियाणा में भी बड़े पैमाने पर लिखा जा रहा है| असल में हरियाणा की दोहा यात्रा भी लगभग उतनी ही पुरानी है जितनी आधुनिक दोहा या नया दोहा की| प्रोफ. देवेन्द्र शर्मा ‘इंद्र’ ने जब सप्तपदी श्रृंखला का सम्पादन किया तो उसमें हरियाणा के श्री पाल भसीन, श्री कुमार रविन्द्र और डॉ. राधेश्याम शुक्ल जैसे कई कवियों के दोहे भी संकलित हुए| बीसवीं सदी के अंतिम दशक में हरियाणा के दोहकारों के एकल संग्रह भी प्रकशित होने शुरू हो गए थे| सबसे पहले पाल भसीन का ‘अमलतास की छाँव’ 1994 में प्रकाशित हुआ, इसके बाद सारस्वत मोहन मनीषी का ‘मनीषी सतसई’ 1996, रक्षा शर्मा ‘कमल’ का ‘दोहा सतसई’ 1998 और ‘रक्षा-दोहा-कोश’ 1999 में प्रकशित हुआ| रामनिवास मानव का बोलो मेरे राम 1999 में, हरेराम समीप का ‘जैसे’ और अमरीक सिंह का ‘दोहा के जाम, नेताओं के नाम’ 2000 में प्रकाशित हो चुके थे| 

    इक्कीसवीं सदी के आते-आते दोहा काफी लोकप्रिय हो चुका था और पिछले दो दशक में बड़ी संख्या में दोहे रचे गए हैं| अब तक हरियाणा में लगभग चार दर्जन दोहकारों के एकल संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं| जिनमें पाल भसीन के ‘अमलतास की छाँव’ और ‘जोग लिखी’, सारस्वत मोहन ‘मनीषी’ के ‘मनीषी सतसई’, ‘सारस्वत सतसई’ और ‘मोहन सतसई’, रक्षा शर्मा ‘कमल’ के ‘दोहा सतसई’ और ‘रक्षा दोहा-कोश’, रामनिवास मानव के ‘बोलो मेरे राम’ और ‘सहमी-सहमी आग’, हरेराम समीप के ‘जैसे’, ‘साथ चलेगा कौन’ ‘चलो एक चिट्ठी लिखे’ और ‘पानी जैसा रंग’, अमरीक सिंह का ‘दोहा के जाम-नेताओं के नाम’, योगेन्द्र मौदगिल का ‘देश का क्या होगा’, नरेन्द्र आहूजा ‘विवेक’ का ‘विवेक-दोहावली’, महेंद्र शर्मा ‘सूर्य’ का ‘संस्कृति सूर्य-सतसई’, उदयभानु हंस का ‘दोहा-सप्तशती’, मेजर शक्तिराज शर्मा का ‘शक्ति सतसई’, सतपाल सिंह चौहान ‘भारत’ के ‘भारत दोहावली भाग-1’ और ‘भारत दोहावली भाग-2’, हरिसिंह शास्त्री का ‘हरि-सतसई’, रामनिवास बंसल का ‘शिक्षक दोहावली’, ए.बी. भारती का ‘प्रारम्भ दोहावली’, गुलशन मदान का ‘लाख टके की बात’, घमंडीलाल अग्रवाल का ‘चुप्पी की पाजेब’, राधेश्याम शुक्ल का ‘दरपन वक़्त के’, रोहित यादव के ‘जलता हुआ चिराग’ और उम्र गुजारी आस में’ रघुविन्द्र यादव के ‘नागफनी के फूल’, ‘वक़्त करेगा फैसला’ और ‘आये याद कबीर’, प्रद्युम्न भल्ला का ‘उमड़ा सागर प्रेम का’, कृष्णलता यादव का ‘मन में खिला वसंत’, पी.डी. निर्मल का ‘निर्मल सतसई’, आशा खत्री का ‘लहरों का आलाप’, महेंद्र जैन का ‘आएगा मधुमास’, सत्यवीर नाहडिया का ‘रचा नया इतिहास’, मास्टर रामअवतार का ‘अवतार दोहावली’, नन्दलाल नियारा का ‘नियारा परिदर्शन’, राजपाल सिंह गुलिया का ‘उठने लगे सवाल’, ज्ञान प्रकाश पीयूष का ‘पीयूष सतसई’, डॉ.बलदेव वंशी का ‘दुख का नाम कबीर’, शारदा मित्तल का ‘मनुआ भयो फ़कीर’, अमर साहनी का ‘दूसरा कबीर’, सुशीला शिवराण का ‘देह जुलाहा हो गई’, उषा सेठी का ‘मरिहि मृगी हर बार’ आदि शामिल हैं| 

    हरियाणा में ऐसे बहुत से दोहाकार हैं जिनके संग्रह अभी तक प्रकाशित नहीं हुए हैं, लेकिन उनके दोहे पत्र-पत्रिकाओं और संकलनों में प्रकाशित होते रहे हैं| इनमें कुमार रविन्द्र, दरवेश भारती, गिरिराजशरण अग्रवाल, सत्यवीर मानव, रमाकांत शर्मा, सत्यवान सौरभ, बेगराज कलवांसिया, विकास रोहिल्ला ‘प्रीत’, नीरज शर्मा, रमेश सिद्धार्थ, अनुपिन्द्र सिंह ‘अनूप’, आशुतोष गर्ग, शील कौशिक, अंजू दुआ जैमिनी, आचार्य प्रकाशचन्द्र फुलेरिया, स्वदेश चरौरा, कपूर चतुरपाठी, प्रदीप पराग, रमन शर्मा आदि शामिल हैं| 

    नए-पुराने कुछ और लोग भी दोहा छंद की साधना में लगे हुए हैं, जिनमें मदनलाल वर्मा, पुरुषोत्तम पुष्प, कमला देवी, सुरेश मक्कड़, लोक सेतिया, देवकीनंदन सैनी, अजय अज्ञात, सत्यप्रकाश ‘स्वतंत्र’, संजय तन्हा, बाबूलाल तोंदवाल, शिवदत्त शर्मा, श्रीभगवान बव्वा, सुरेखा यादव, राममेहर ‘कमेरा’ सतीश कुमार और अंजलि सिफर आदि शामिल हैं| 

    उपरोक्त संग्रहों के अलावा हरियाणा से प्रकाशित होने वाली विभिन्न पत्रिकाओं यथा- हरिगंधा, बाबूजी का भारतमित्र, शोध दिशा आदि ने दोहा विशेषांक भी प्रकाशित किये हैं| 

    हरियाणा से ही कुछ साझा दोहा संकलनों का भी प्रकाशन हुआ है| जिनमें आधी आबादी के दोहे, आधुनिक दोहा, दोहे मेरी पसंद के और दोहों में नारी (सभी के संपादक रघुविन्द्र यादव), समकालीन दोहा कोश (हरेराम समीप) प्रमुख हैं| 

    हिंदी दोहा के अलावा हरियाणा में हरियाणवी बोली में भी दोहे रचे जा रहे हैं और अब तक आधा दर्जन से अधिक दोहकारों के एकल संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं| जिनमें लक्ष्मण सिंह का हरयाणवी दोहा-सतसई, रामकुमार आत्रेय का सच्चाई कड़वी घणी, श्याम सखा श्याम का औरत बेद पांचमा, हरिकृष्ण द्विवेदी के बोल बखत के, मसाल और पनघट, सारस्वत मोहन मनीषी के मरजीवन सतसई और सरजीवन सतसई, सत्यवीर नाहडिया के गाऊं गोबिंद गीत और बखत-बखत की बात शामिल हैं| संभव है कुछ और दोहाकार भी हरियाणवी दोहे लिख रहे हों, लेकिन अभी तक प्रकाश में नहीं आये हैं| 

    हरियाणा में समकालीन दोहा का बिरवा रोपने और उसे पल्लवित-पोषित करने में निसंदेह पाल भसीन, कुमार रविन्द्र, राधेश्याम शुक्ल, सारस्वत मोहन मनीषी, हरेराम समीप, उदयभानु हंस आदि का योगदान रहा है| किन्तु दोहे को लोकप्रियता के शिखर पर ले जाने का श्रेय रघुविन्द्र यादव और हरेराम समीप को जाता है| जहाँ श्री समीप के खुद के चार दोहा संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं, वहीं उन्होंने ‘समकालीन दोहा कोश’ का सम्पादन कर ऐतिहासिक कार्य किया है| वहीं रघुविन्द्र यादव के तीन दोहा संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं, उन्होंने चार दोहा संकलनों का सम्पादन किया है| साथ की पत्रिका के दो दोहा विशेषांक प्रकाशित किये हैं| उनके कुछ दोहों के विडियो पूरे सोशल मीडिया पर छाये हुए हैं| सुपरटोन डिजिटल द्वारा रिकॉर्ड किया गया उनके दोहों का एक विडियो तो अब तक एक करोड़ चालिस लाख बार देखा जा चुका है| जो संत कबीर के दोहों के बाद सर्वाधिक देखा जाने वाला विडियो बन चुका है| 

    श्री पाल भसीन हरियाणा के पहली पीढ़ी के समकालीन दोहाकार हैं| कथ्य और शिल्प दोनों ही दृष्टि से आपके दोहे उत्कृष्ट हैं| उनके संग्रह ‘अमलतास की छाँव’ से बानगी स्वरूप कुछ दोहे- 

धूल-धूल हर स्वप्न है, शूल-शूल हर राह| 
धुआँ-धुआँ हर श्वास है, चुका-चुका उत्साह|| 

कलियाँ चुनता रह गया, गुँथी नहीं जयमाल| 
झुका पराजय बोझ से, यह गर्वोन्नत भाल|| 

कर हस्ताक्षर धूप के, खिला गुलाबी रूप| 
चले किरण दल पाटने, अन्धकार के कूप|| 

    डॉ. राधेश्याम शुक्ल सप्तपदी में शामिल प्रमुख दोहकारों में से एक हैं| उनके संग्रह ‘दरपन वक़्त के’ में पारिवारिक रिश्तों, परदेसी की पीड़ा, ग्राम्यबोध, स्त्री विमर्श जैसे अनछुए किन्तु महत्त्वपूर्ण विषयों पर दोहे शामिल हैं| जैसे- 

बेटी मैना दूर की, चहके करे निहाल| 
वक़्त हुआ तो उड़ चली, ताज पीहर की डाल|| 

प्रत्यय है, उपसर्ग है, औरत संधि, समास| 
है जीवन का व्याकरण, सरल वाक्य विन्यास|| 

छोटी करके थक गए, ज्ञानी संत फ़कीर| 
बनी हुई है आज भी, औरत बड़ी लकीर|| 

     श्री हरेराम समीप जन सरोकार के कवि हैं| उनके दोहों में व्यंग्य एक महत्वपूर्ण तत्व है। चुटीले व्यंग्य के माध्यम से राजनीतिक विसंगति और सत्ता के छद्म का खुलासा करते हैं। उनके दोहा संग्रह ‘जैसे’, ‘साथ चलेगा कौन’ ‘चलो एक चिट्ठी लिखे’ और ‘पानी जैसा रंग’ से कुछ दोहे- 

एक अजूबा देश यह, अपने में बेजोड़|   
यहाँ मदारी हाँक ले, बंदर कई करोड़|| 

पुलिस पकड़ कर ले गई, सिर्फ उसी को साथ| 
आग बुझाने में जले, जिसके दोनों हाथ|| 

अस्पताल से मिल रही, उसी दवा की भीख| 
जिसके इस्तेमाल की, निकल गई तारीख|| 

फिर निराश मन में जगी, नव जीवन की आस| 
चिड़िया रोशनदान पर, फिर लाई है घास|| 

    डॉ. सारस्वत मोहन मनीषी भी समकालीन दोहा के साथ-साथ हरियाणवी दोहा के सशक्त हस्ताक्षर हैं| आपने न केवल हिंदी बल्कि हरियाणवी में भी साधिकार दोहे लिखे हैं। ‘मनीषी सतसई’, ‘सारस्वत सतसई’ और ‘मोहन सतसई’ से बानगी के दोहे- 

राजनीति के आजकल, ऐसे हैं हालात| 
गणिका जैसा आचरण, संतों जैसी बात|| 

सिंहासन का सत्य से, नाता दूर-सुदूर| 
विधवाओं की माँग में, कब मिलता सिन्दूर|| 

    प्रख्यात बाल साहित्यकार श्री घमंडीलाल अग्रवाल ने भी दोहा साहित्य को समृद्ध किया है| ‘चुप्पी की पाजेब’ से कुछ दोहे- 

कई मुखौटे एक मुख, दुर्लभ है पहचान| 
इंसानों के वेश में, घूम रहे शैतान|| 

कहा पेट ने पीठ से, खुलकर बारम्बार| 
तेरे मेरे बीच में, रोटी की दीवार|| 

निशिगंधा यह देख कर, हुई शर्म से लाल| 
भीड़ उन्हीं के साथ थी, जिनके हाथ मसाल|| 

    हरियाणा से राज्यकवि रहे स्व. उदयभानू हंस यूँ तो रुबाई सम्राट के रूप में जाने जाते हैं, लेकिन वे अच्छे दोहाकार भी थे| ‘दोहा-सप्तशती’ से दो दोहे- 

बीत चुके पचपन बरस, हुआ देश आज़ाद| 
कौन राष्ट्रभाषा बने, सुलझा नहीं विवाद|| 

मैं दुनिया में हो गया, एक फालतू चीज| 
जैसे खूँटी पर टँगी, कोई फटी क़मीज|| 

    श्री रघुविन्द्र यादव के दोहे अनुभूति की कसौटी पर बड़े मार्मिक, प्रभावपूर्ण और दूर तक अर्थ सम्प्रेषण करने वाले कहे जा सकते हैं| सहजता में ही इनका सौष्ठव निहित है| ‘नागफनी के फूल’, ‘वक़्त करेगा फैसला’ और ‘आये याद कबीर’ से कुछ दोहे- 

कहाँ रहेंगी मछलियाँ, सबसे बड़ा सवाल| 
कब्ज़े में सब कर लिए, घडियालों ने ताल|| 

गंगू पूछे भोज से, यह कैसा इन्साफ? 
कुर्की मेरे खेत की, क़र्ज़ सेठ का माफ़|| 

अपने भाई हैं नहीं, अब उनको स्वीकार| 
चूहे चुनना चाहते, बिल्ली को सरदार|| 

गड़बड़ मौसम से हुई या माली से भूल। 
आँगन में उगने लगे नागफनी के फूल।। 

साधारण से लोग भी, रचते हैं इतिहास। 
सीना चीर पहाड़ का, उग आती ज्यों घास।। 

     स्व. सतपाल सिंह चौहान ‘भारत’ ने विविध विषयों पर दोहे रचे हैं, जो ‘भारत दोहावली भाग-1’ और ‘भारत दोहावली भाग-2’ मे प्रकाशित हुये हैं- 

हीरे का तो मोल है, ज्ञान सदा अनमोल| 
अन्तर मन के भाव को, मत पत्थर से तोल|| 

उजियारे में बैठकर, करता काले काम| 
‘भारत’ से अंधा भला, जपे राम का नाम|| 

    लोक साहित्यकार रोहित यादव ने दोहे भी लिखे हैं| ‘जलता हुआ चिराग’ और उम्र गुजारी आस में’ से दो दोहे- 

अभी बहुत कुछ शेष है, जीवन से मत भाग| 
बुझा नहीं है आस का, जलता हुआ चिराग|| 

ऐसा भी तू क्या थका, मान रहा जो हार| 
हिम्मत अपनी बाँध ले, लक्ष्य खड़ा है द्वार|| 

    वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. कृष्णलता यादव का भी एक बहुरंगी दोहा संग्रह ‘मन में खिला वसंत’ प्रकाशित हुआ है| बानगी स्वरूप कुछ दोहे- 

आँधी है बदलाव की, होते उलटे काम| 
बाबुल को वनवास दे, कलयुग वाला राम|| 

आग लगी जब महल में, कुटिया लाई नीर| 
महल तमाशा देखता, पड़ी कुटी पर भीर|| 

भारी से भारी हुई, नेताजी की जेब| 
ऊँचे दामों बिक रहे, धोखा, झूठ, फरेब|| 

    श्रीमती आशा खत्री ‘लता’ भी हरियाणा की प्रमुख महिला दोहकारों में से एक हैं। ‘लहरों का आलाप’ उनका प्रकाशित संग्रह है। कुछ दोहे इसी संग्रह से- 

जीवन भर तनहाइया, लिये तुम्हारी याद। 
पीडा का करती रही, आंसू में अनुवाद॥ 

उसको ही आता यहाँ, करना सागर पार। 
लहरों से जिसकी कभी, थमी नहीं तकरार॥ 

    हरियाणा के नये दोहकारों के संग्रह भी प्रकाशित हो रहे हैं, जो शीघ्र ही प्रकाश में आयेंगे। लघुकथा के बाद दोहा को भी हरियाणा के रचनाकारो का भरपूर प्यार मिल रहा है। 

-रघुविंद्र यादव



संदर्भ सूची-

1. साकेत सर्ग- 9 
2. ‘वक़्त करेगा फैसला’ दोहा संग्रह – रघुविंद्र यादव पृष्ठ- 9 
3. ‘बाबूजी का भारतमित्र’ दोहा विशेषांक (सं. रघुविन्द्र यादव) पृष्ठ- 3 
4. ‘बाबूजी का भारतमित्र’ दोहा विशेषांक (सं. रघुविन्द्र यादव) पृष्ठ- 5 
5. ‘दोहे मेरी पसंद के’ दोहा संकलन (सं. रघुविन्द्र यादव) पृष्ठ- 5 
6. ‘दोहे मेरी पसंद के’ दोहा संकलन (सं. रघुविन्द्र यादव) पृष्ठ- 6 

7. ‘बाबूजी का भारतमित्र’ दोहा विशेषांक (सं. रघुविन्द्र यादव) पृष्ठ- 18  

Saturday, June 13, 2020

मात्राओं की गणना कैसे करें

मात्राओं की गणना कैसे की जाती है  

मात्राओं की गणना निम्रप्रकार की जाती है-

हिन्दी भाषा के वर्णों को 12 स्वरों और 36 व्यंजनों में बाँटा गया है। सभी व्यंजनों की एक मात्रा (।) मानी जाती है। लघु स्वर अ, इ, उ, ऋ की भी (।) मात्रा ही मानी जाती हैं। जबकी दीर्घ स्वर आ, ई, ऊ, ए, ऐ ओ और औ की मात्राएँ दीर्घ (ऽ) मानी जाती हैं। व्यंजनों पर लघु स्वर अ, इ, उ, ऋ आ रहे हों तो भी मात्रा लघु (।) ही रहेगी। किंतु यदि दीर्घ स्वर आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ की मात्राएँ आ रही हों तो मात्रा दीर्घ (ऽ) हो जाती है।

अर्ध-व्यंजन और अनुस्वार/बिंदु (.)की आधी मात्रा मानी जाती है। मगर आधी मात्रा की स्वतंत्र गणना नहीं की जाती। यदि अनुस्वार अ, इ, उ अथवा किसी व्यंजन के ऊपर प्रयोग किया जाता है तो मात्राओं की गिनती करते समय दीर्घ मात्रा मानी जाती है किन्तु स्वरों की मात्रा का प्रयोग होने पर अनुस्वार (.) की मात्रा की कोई गिनती नहीं की जाती।

आधे अक्षर की स्वतंत्र गिनती नहीं की जाती बल्कि अर्ध-अक्षर के पूर्ववर्ती अक्षर की दो मात्राएँ गिनी जाती है। यदि पूर्ववर्ती व्यंजन पहले से ही दीर्घ न हो अर्थात उस पर पहले से कोई दीर्घ मात्रा न हो। उदाहरण के लिए अंत, पंथ, छंद, कंस में अं, पं, छं, कं सभी की दो मात्राए गिनी जायेंगी इसी प्रकार शब्द, वक्त, कुत्ता, दिल्ली इत्यादि की मात्राओं की गिनती करते समय श, व, क तथा दि की दो-दो मात्राएँ गिनी जाएँगी। इसी प्रकार शब्द के प्रारंभ मेें आने वाले अर्ध-अक्षर की मात्रा नहीं गिनी जाती जैसे स्वर्ण, प्यार, त्याग आदि शब्दों में स्, प् और त् की गिनती नहीं की जाएगी। प्रारम्भ में संयुक्त व्यंजन आने पर उसकी एक ही मात्रा गिनी जाती है। जैसे श्रम, भ्रम, प्रभु, मृग। इन शब्दों मेें श्र, भ्र, प्र तथा मृ की एक ही मात्रा गिनी जाएगी।

अनुनासिक/चन्द्र बिन्दु की कोई गिनती नहीं की जाती। जैसे- हँस, हँसना, आँख, पाँखी, चाँदी आदि शब्दों में अनुनासिक का प्रयोग होने के कारण इनकी कोई मात्रा नहीं मानी जाती।

-रघुविन्द्र यादव